Tuesday, February 5, 2013

कुम्भाख्यः तीर्थनायके


कुम्भाख्यः तीर्थनायके

भूमण्डल पर मनुष्यमात्र के पापों का प्रक्षालन करने और अमृततत्व को सुगम कर पापाक्रान्ता पृथ्वी को कल्याणादि का उपहार देना ही कुम्भोत्पत्ति का हेतु है।
कुं अर्थात् पृथ्वीं भ अर्थात् भविष्यत् कल्याणादिकाय भावयन्ति महति आकाशे स्थिताः गुर्वादयः ग्रहाः संयुज्य प्रयागादि तत्तीर्थस्थानविशेषान् उद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः ----- पृथ्वी को कल्याणादि की सूचना देने के लिए प्रयागादि तीर्थस्थानविशेष के उद्देश्य से अनन्ताकाश में गुरू आदि ग्रह विशेष व्यूह में उपस्थित हों जिसमें; - वह कुम्भ है।
कालचक्र पर ग्रहों के योगविशेष से ब्रह्माण्ड में लुप्त-सुप्त अमृततत्व को प्रत्यक्ष और सुगम करने के लिए प्रत्येक बारहवें वर्ष इस अवसर पर पतितपावनी नदियाँ गंगा, त्रिवेणी, शिप्रा और गोदावरी अपनी जलधारा में अमृततत्व प्रवाहित करने लगती हैं। इन्हीं के तट पर समष्टि में व्यष्टि के विसर्जन की अलौकिक छटा बिखेरते अमृतकुम्भप्रतिष्ठा के पौराणिक तीर्थ हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में अमृतकुम्भ की प्रतिष्ठा का सुयोग बन जाता है। अर्थात् स्थान, काल और वस्तु अमृत के प्रादुर्भाव के योग्य हो जाते हैं। फलस्वरूप अमृतघट का अवतरण होता है।
10 जनवरी 2013, मौनी अमावस्या को गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर स्थित तीर्थराज प्रयाग में अतिदुर्लभ कुम्भयोग बन रहा है।
माघे वृषगते जीवे मकरे शशिदिवाकरौ।
अमावस्या तदा योगे कुम्भाख्यः तीर्थनायके।।
(जिस माघ अमावस्या को वृषराशि में स्थित जीव (गुरू) की अमृतदृष्टि मकरराशिगत आत्मा के कारक सूर्य और मन के कारक चन्द्रमा पर पड़ती है, उस दिन तीर्थनायक में कुम्भयोग बनता है।)
पापपुंज रुपी गजराज के विनाश को सक्षम मृगराज के तुल्य तीर्थराज प्रयाग की महिमा का बखान कौन कर सकता है-
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
और संतसमाज तो धरती पर मानवता के कल्याणार्थ चलता-फिरता तीर्थराज ही है-
मुद मंगलमय संत समाजू।
जिमि जग जंगम तीरथराजू।।
उपरोक्त विशेषयोग में अमृतधारत्रिवेणी संगम पर विलसित स्थावर तीर्थराज प्रयाग और निरन्तर ज्ञानामृतवर्षा से मानवता को आप्लावित करते जंगम तीर्थराज संतसमाज का संयोग ही अमृततत्व की सृष्टि का उपादान बन जाता है। इस बार इस विशिष्ट कुम्भयोग में पश्चिमवाहिनी हुयी देवसरि गंगा का कुछ और पश्चिम की ओर जाकर यमपुत्री को अपने में समाहित कर लेना और देवेन्द्र के कोप से अमृतकुम्भ की रक्षा करने वाले शनि का स्वोच्च राशि में स्थित होकर अपने मित्र तथा वर्षपति शुक्र के साथ स्थान परिवर्तन करना अतिदुर्लभ संयोग की रचना कर रहे हैं। ऐसे में त्रिवेणी में सविधि स्नान, सत्पात्र को ससंकल्प यथाशक्ति दान, भगवान भुवन भास्कर को जलार्घ्य और महामृत्युञ्जय का मंत्रजप निश्चय ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देते हैं। श्रद्धा से भगवान् आशुतोष की पार्थिवार्चना तथा संगमतट पर विराजमान श्रीरामभक्त हनुमानजी की पूजन-आरती सकल कामनाओं से मुक्त कर देती हैं। अपौरुषेय वेदों की यह निर्विवाद स्थापना है-
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।
बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।।(ऋग्वेद10।89।7)
कुम्भपर्व में जानेवाला मनुष्य दान-होम आदि सत्कर्मों के द्वारा अपने पापों को वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे कुठार वन को काट डालता है। जिसप्रकार गंगा अपने तटों को काटती हुयी प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भपर्व मनुष्य के सञ्चित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है तथा कच्चे घड़े के समान बादल को नष्टकर सुवृष्टि प्रदान करता है।
वास्तव में यह दुर्लभ कुम्भपर्व स्नान-दानादि सत्कर्मों के द्वारा जन्म-जन्मान्तर के समस्त पापों का शमन कर मनुष्य को श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति का सहज सुलभ अवसर है।(कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्ने योन्यां गर्भो अन्तः। शु. यजुर्वेद 19।87)



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