Tuesday, September 27, 2011

नमो देव्यै महादेव्यै....

भारतीय ज्योतिष के अनुसार वर्ष में सायन पद्धति से मेषारम्भ, कर्कारम्भ, तुलारम्भ और मकरारम्भ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसी में चार नवरात्र :- वासन्तिक नवरात्र (चैत्र मास में), गुप्त नवरात्र (आषाढ़ मास में), शारदीय नवरात्र (आश्विन मास में) और सारस्वत नवरात्र (माघ मास में) का विधान है। इनमें भी लोक कामनापरक साधना के लिए ऋषियों ने विषुवथवा विषुवत् काल में मनाए जाने वाले वासन्तिक और शारदीय नवरात्रों का ही विधान किया है। इसका कारण यह है कि इन्हीं दोनों अवसरों पर सूर्य ठीक पूर्व में उदित होता है, वातावरण समशीतोष्ण होता है और त्रिगुणात्मिका प्रकृति साम्यावस्था में होती है अर्थात् इस समय सत्त्वरूप दिन का प्रकाश, तमोरूप रात्रि का अन्धकार और रजोरूप सन्ध्या तीनों लम्बे या छोटे न होकर सन्तुलित होते हैं। अमरकोष के अनुसार,
समरात्रिन्दिवे काले विषुवद्विषुवं च तत्
आर्ष-वाङ्मय  के अनुसार त्रिगुणात्मिका प्रकृति के तीनों गुणों के परस्पर मिलने से गुणों के सत्त्वप्रधान सत्त्व, सत्त्वप्रधान रज, सत्त्वप्रधान तम और रजःप्रधान सत्त्व, रजःप्रधान रज, रजःप्रधान तम तथा इसी प्रकार तमःप्रधान सत्त्व, तमःप्रधान रज, तमःप्रधान तम ये नौ रूप होते हैं। त्रिगुणात्मिका प्रकृति अर्थात् महामाया के इन्हीं नौ रूपों की उपासना और आराधना नौ अहोरात्रों यानि नवरात्रों में की जाती है। तान्त्रिक मतों का अनुसार पहले तीन दिनों में तमस अर्थात् क्रमशः तमःप्रधान त्रिगुण को जीतने की आराधना, अगले तीन दिन रजस अर्थात् रजःप्रधान त्रिगुण और आखिरी तीन दिन सत्त्व अर्थात् सत्त्वप्रधान त्रिगुण  को जीतने की अर्चना के माने गए हैं। किन्तु; जनसामान्य के लिए यह अवसर जगज्जननी की आराधना और उनकी कृपाप्राप्ति का है, जिन्हें भारतीय मनीषा दुर्गा कहकर पुकारती रही है। दुर्गाशब्द में द् दैत्यनाशक, कार विघ्ननाशक, रेफ रोगनाशक, ग् पापनाशक और कार भय तथा शत्रुनाशक हैं।
दैत्यनाशार्थे वचनो द्कार परिकीर्तितः। कार विघ्ननाशस्य वाचको वेद सम्मतः।।
रेफो रोगघ्न वचनो गश्च पापघ्नकारकः। भय शत्रुघ्न वचनश्चाकारः परिकीर्तितः।।
दुर्गा इस नाम के स्मरणमात्र से - सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है (निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या) वह माता प्राणिमात्र का भय हर लेती हैं, स्वस्थ (विकाररहित) मन से स्मरण करने पर परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं, उनके समान दुःख, दरिद्रता और भय का नाश करने वाला दूसरा कोई नहीं है तथा जिनका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही करुणार्द्र रहता है—
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणायसदार्द्रचित्ता।। (श्रीदुर्गासप्तशती, अ.4,श्लो.17)

शारदीय नवरात्र में माता की पूजा और इस अवसर पर श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ या पाठ का श्रवण माता की प्रसन्नता दिलाने वाला होता है।  देवताओं की अभ्यर्थना से प्रसन्न होकर जगज्जननी ने स्वयं कहा है—
शरत्काले महापूजा क्रीयते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः।।          
सर्वावाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।।( श्रीदुर्गासप्तशती, अ.12,श्लो.12-13)
( मनुष्य मेरे प्रसाद से सभी बाधाओं से मुक्त तथा धन-धान्य और सन्तान से युक्त होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है )
पूजन सामग्री-
मिट्टी – शमी या पीपल के जड़ की, विमौट(दीमक की मिट्टी), गंगादि पवित्र स्थानों की मिट्टी या किसी पवित्र स्थान पर जमीन के चार अंगुल नीचे की मिट्टी
-   जौ, अक्षत, रोली, सिंदूर, मौली, लाल चन्दन, पीसी हल्दी, अबीर-गुलाल, सुहाग-पेटिका ( एक बटुए में चुड़ियाँ, कंगन, कंघी, महावर, मेंहदी, इत्र, आइना, काजल, बिन्दी इत्यादि), पान, सुपारी, लौंग, ईलायची, पंचमेवा, रूद्राक्ष की माला, रूई की बत्ती, जनेऊ, अगरबत्ती, पानी वाला (कच्चा) नारियल, सर्वौषधि, लाल चुनरी, माचिस, कपूर, गंगाजल, घी, दूध, दही, शहद, शक्कर, चावल, गुग्गुल, मिठाई, ऋतुफल, कांसे की प्लेट, अखण्ड दीप, पूजा की थाली, लोटा, पूजा के लिये स्वच्छ जल, मिट्टी के दीपक, ढक्कन सहित मिट्टी का कलश, मिट्टी की धूपदानी, मिट्टी की नदिया (जौ बुनने के लिए), दोनिया, फूल, आम के पत्ते, बिल्वफल, दूब, कुश,     
पूजन विधि—
पूजा के लिए निर्धारित स्वच्छ स्थान पर साफ आसन पर पूरब की ओर मुँह करके बैठें। अपनी बायीं ओर जलपात्र, घंटी और धूपदानी, दाहिनी ओर घी भरा अखण्ड दीप तथा सामने पूजा की थाली रखें। पूजा-स्थान पर साफ मिट्टी से भरी  नदिया रखकर उसके सामने आम का पत्ता रखें। कुशा की पवित्री धारण कर आचमन करें तथा रक्षा दीप जला लें। दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र (दोनिया) लेकर उसमें तीन कुश, सुपारी, पुष्प, अक्षत, जल और द्रव्य रखकर पूजन का संकल्प करें –
अद्य शारदीय नवरात्रस्य प्रतिपदायां श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः (अपना गोत्र बोलें) गोत्रोत्पन्नः (नाम बोलें) अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो  सर्वविधपीड़ानिवृति पूर्वकं चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती देवताप्रीत्यर्थम् दुर्गापूजनसंकल्पं अहं करिष्ये
संकल्पित सामग्री वहीं सामने रख दें। अब हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर गणपति के साथ माता गौरी का आवाहन हेतु स्मरण करें और सादर पुष्प-अक्षत आम के पत्ते पर रख दें। पञ्चोपचार या षोडषोपचार से गणेशाम्बिका का पूजन कर सामने रखे दूसरे आम के पत्ते पर इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, स्थानदेवता, वास्तुदेवता और नवग्रहों का आवाहन-पूजन करें। तदुपरान्त नदिया की मिट्टी पर जौ बिखेर कर उसपर कलश स्थापित करें। कलश में जल, चन्दन, सर्वौषधि, दूब, पञ्चपल्लव(आम के पत्ते), कुशा, सुपारी और द्रव्य डालकर उसपर चावल से भरा ढक्कन रखें। उसपर लाल चुनरी में लपेटकर नारियल रखें। वरुण आदि देवताओं का आवाहन-पूजन करें। अब माता का ध्यान करें –
जयन्ती मङ्लाकाली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
आगच्छ वरदे देवि दैत्यदर्पनिपातिनी।
पूजां गृहाण सुमुखी नमस्ते शङ्करप्रिये।।
फिर ऐं ह्रीं क्लीं दुर्गायै नमः का जप करते हुए आवाह्न, प्राणप्रतिष्ठा और आसन के लिये कलश पर फूल-अक्षत अर्पित करें।
 फिर दुर्गे दुर्गे रक्षणि रक्षणि स्वाहाइस मन्त्र से पूजन करें। अर्घ्य, पाद्य, आचमन और स्नान के लिये जल अर्पित करें। फिर क्रमशः पंचामृतस्नान, शुद्धस्नान और आचमन निवेदित करें। तदुपरान्त वस्त्र, उपवस्त्र, आचमन, सिन्दुर, सुहाग-पेटिका, हल्दी, चंदन, अक्षत और पुष्प अर्पित करें। उसके बाद अबीर-गुलाल, गुग्गुल का धूप, दीप, नैवेद्य [पञ्चमेवा], आचमन, ऋतुफल, और लौंग-सुपारी युक्त पान अर्पित करें। माता की आरती उतारें, पुष्पाञ्जली दें और नवमी पर्यन्त घर में सुखपूर्वक विराजने का आग्रह करते हुए क्षमाप्रार्थना करें।
इसके बाद यथाशक्ति श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ अथवा मन्त्रजप करें और माता को समर्पित कर दें।
नवमी पर्यन्त सुबह-शाम माता की पूजन-आरती करें। नवमी को (या कुलाचार से अष्टमी को) हवन और कन्या-पूजन करें।
वैसे तो कलश-स्थापन पूरे दिन में कभी भी किया जा सकता है किन्तु सम्भव हो, तो अभिजित् मुहुर्त में करें, जो 28 सितम्बर 2011 को दोपहर 11:48 से 12:36 तक है।
कामनापूरक विशेष मन्त्र :-
1.  बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये-
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥( मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन-धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।) अ.4,श्लो.17
2.  सब प्रकार के कल्याण के लिये-
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥( नारायणी, तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो तुम्हें नमस्कार है) अ.4,श्लो.17
3.   दारिद्र्य-दु:खादि नाश के लिये -
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥( माँ दुर्गे, आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि, आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दया‌र्द्र रहता हो।)(अ.4,श्लो.17)
4.   समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये- विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥ ( देवि, सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब, एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है, तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।) (अ.11, श्लो.6)
5.   संतान प्राप्ति हेतु-- नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी।। (अ.11, श्लो.42)
6.   रक्षा पाने के लिये --
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥( देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें।)(अ.4,श्लो.24)
7.   बाधा शान्ति के लिये-- सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥( सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।)(अ.11, श्लो.38)
8.  सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये-- पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥( मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।)(अर्गला,श्लो.24)
9.  आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये --
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥( मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।)(अर्गला,श्लो.12)
10.       रोग नाश के लिये—
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥( देवि, तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।)(अ.11, श्लो.29)
श्रीदुर्गासप्तशती का कामनानुसार उपरोक्त मंत्रों से संपुटित पाठ करें अथवा कार्य सिद्धि के लिये स्वतंत्र रुप से भी इनका पुरश्चरण किया जा सकता है। इस प्रकार पूजित जगज्जननी पराम्बा महामाया हम सबका कल्याण करें---
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥( सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें।)