Monday, November 16, 2015

काँचहिं बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाए

सूर्यषष्ठी यानि भगवान भुवन भास्‍कर की आराधना का महापर्व। शरद और शीत ऋतु की संधिवेला में प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा देता लोक-महापर्व। एक ऐसा महायज्ञ, जिसमें न तो पुरोहित होते हैं, न मंत्रानुष्ठान और न ही क्लिष्ट कर्मकाण्ड। एक ऐसा लोक-उत्सव, जिसमें अस्पृष्यता, ऊँच-नीच, दिखावा जैसे सामाजिक पापों के लिए कोई जगह नहीं बचती। रहता है तो बस अहंकारशून्य पूर्ण समर्पण का भाव और सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति कल्याणकारी भावोद्गार लिए लोकगीत की गूँज। ये लोकगीत ही इस अद्वितीय महापर्व के मंत्र हैं, गीत गाती नारियाँ पुरोहित, कच्चे बाँस के सूप-दौरे यजन-पात्र तथा ताम्बे का लोटा स्रुवा। वैदिक देवता सूर्य की लोकाराधना का यह महापर्व सम्पूर्ण रूप से मृत्योर्मां अमृतंगमय का प्रगटी करण है।

चाहे राजा हों या रंक, अस्पृष्य कहे जानेवाले डोमों के घर से बाँस-दौरे, मिट्टी के दीपक, आस-पास उपजे कन्द-मूल (शक्करकन्द, सूथनी), ऋतुफल, नया बादाम, ईख, गेहूँ के आटे और गूड़ से बने घी में तले अगरौटे, चावल के आटे-चीनी की कचवनिया का प्रसाद--- और कम से कम पाँच घरों से पूजन के लिए भिक्षा माँगना.... अहंकारशमन के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है! और भगवान से याचना भी कैसी?

घोड़वा चढ़न के बेटा माँगिला, नेपुर शबद पतोहु,

छठी मइया, दरसन देहूँ ना आपsन।।

यानि बेटा सामर्थ्यशाली हो, समाज की रक्षा कर सके तथा नूपुर की तरह मीठे व्यवहार वाली पुतोहु। लेकिन सबसे बड़ी बात, जो एकमात्र इस महापर्व का गुणधर्म है, वह है,

रुनुकी-झुनुकी बेटी माँगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद,

छठी मइया......

बेटा ही नहीं, घर को प्राणवान बनाने के लिए रुनझुन करती बेटी की याचना की आतुर गूँज इस महानुष्ठान की मर्यादा को अभिव्यक्त करती है। साथ ही दामाद कैसा, जो पढ़ा-लिखा हो समझदार हो... धन की कामना ही नहीं।

घाट पर अर्घ्य को खड़े व्रती को अर्घ्य दिलाने के लिए बढ़े हाथ जिस किसी भी व्यक्ति के हैं, उनके सामाजिक स्तर का ध्यान तो होता ही नहीं। प्रसाद के लिए हाथ बढ़ाकर याचना करना महापुण्य समझा जाता है।

तो आइए जानते हैं, कैसे मनाते हैं छठ महापर्व!
चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होती है। पहले दिन को नहाय-खाय कहते हैं। इस दिन परिजनों समेत स्नान कर 12 घण्टे के अंतराल पर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी आहार यानि अरवा चावल और घी और सैंधव नमक से बनी चने की दाल तथा लौकी की सब्जी प्रसाद के रूप में ग्रहण किये जाते हैं।

अगले दिन यानि पंचमी को खरना होता है। दोपहर में घाट की पूजा, भगवान को अर्घ्य देकर पूजन की शुरुआत करते हैं। रात में गन्ने का रस और चावल का जाउरया गुड़-दूध-चावल की खीर बनायी जाती है। हाथ पर थपकाकर बनी रोटी के साथ जाउर पिछली रात्रि से 24 घण्टे के उपवास के बाद रात में व्रतधारी यह प्रसाद लेते हैं। एक बैठक में बिना बोले प्रसाद-ग्रहण की परम्परा है। और फिर शुरू होता है 36 घंटे का कर्मशील निर्जला महा उपवास।

सूर्यषष्ठी के दिन सुबह सूर्योदय से पहले तैयार होकर प्रसाद बनाने की तैयारी शुरू हो जाती है। चुल्हे के सामने बिना बोले अगरौटा-कचवनिया बनाना शुरू कर देते हैं व्रती। फिर सूप-दउरे में प्रसाद सजाए जाते हैं-- शक्करकन्द, सूथनी, ऋतुफल, पानीफल सिंघाड़ा, नया बादाम, भिगोया चना, जायफल, पान-सुपारी, महावर, ईख, गेहूँ के आटे और गूड़ से बने घी में तले अगरौटे, चावल के आटे-चीनी की कचवनिया तथा ईख। अपराह्न होते ही काँचहिं बाँस के बहँगिया….’ के गुंजार के बीच माथे पर दउरा रखे, नंगे पाँव सूरज बाबा को अर्पित करने चल देते हैं परिजनों सहित व्रती। घाट पर उपलब्धतानुसार कमर भर जल में प्रार्थना करते, निहारते खड़े रहते हैं अस्ताचलगामी सूर्य को। फिर सूप में अर्घ्य सजाकर दो बार दूध और तीन बार जल से अर्घ्य दे परिक्रमा करते हैं। सम्भव हो तो रात्रिवास घाट पर ही करते हैं।

सप्तमी की सुबह उषाकाल में ही जल में खड़े सूर्य की प्रतीक्षा प्रारम्भ हो जाती है। उगते सूर्य को तीन बार दूध और दो बार जल से अर्घ्य देकर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है।

व्रत की पूर्णता पारण से होती है। घाट पर ही धूप-दीप-गन्ध से आदित्यनारायण की पूजा कर प्रसाद-शर्बत से पारण किया जाता है।

आइए, भगवान भुवन भास्कर की अभ्यर्थना को करबद्ध खड़े होकर सुदृढ़ समाज की याचना करें...

सर्वे भवन्तु सुखिनः......

 

Saturday, November 7, 2015


श्री-वरदा हो दीपावली

इस वर्ष 11 नवम्बर 2015, बुधवार को स्वाती/विशाखा नक्षत्र, सौभाग्य योग, अमावस्यायुक्त प्रदोष तथा निशीथ योगों से युक्त दीपावली अत्यन्त शुभप्रद है। कुम्हार के चाक पर बने मिट्टी के दीए ही पूजा के अत्यन्त उपयुक्त होते हैं। साथ ही दीपक में जलते तेल की गन्ध मानवमात्र के लिए अहानिकारक किन्तु कीट-विषाणु-रोधक होने से तैलपूर्ण दीए का ही प्रयोग सर्वथा उचित है। मोमबत्ती का जलता मोम मानव के फेफड़ों के साथ ही पर्यावरण के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक है। इसलिए मोम के प्रयोग से हरसम्भव बचना चाहिए।

लोकत्योहार है दीपावली, इसलिए सामुहिकता दिखती है,

लक्ष्मी पर्व है, इसलिए मिट्टी के दीपक, मिट्टी की प्रतिमा, मिट्टी के कलश ही उपयोग में लाए जाते हैं,

स्थावरोत्सव है, क्योंकि जिस भूभाग में हैं, उसी भूभाग की मिट्टी से बने सामान प्रयोग में लाए जाते हैं।

सद्गृहस्थों के लिए महावसना पूजन के शुभ मुहूर्त:
पश्चिमी भारत (दिल्ली, मेरठ, जयपुर, लुधियाना, अमृतसर)

1) प्रदोषकाल में शाम 5.43 से 7.38 तक (स्थिर वृष लग्न, विशाखानक्षत्र), सायम् 7.09 से 08.50 तक शुभ चौघड़िया है।

2) निशीथकाल में रात्रि 9.52 से 10.31 तक कर्क लग्न तथा अमृत चौघड़िया महावसना के पूजन के लिए अत्यन्त शुभ है।

पूर्वी भारत (इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, राँची, गोरखपुर, टाटानगर)

1) प्रदोषकाल में शाम 5.07 से 7.26 तक (स्थिर वृष लग्न, विशाखानक्षत्र), सायम् 7.09 से 08.50 तक शुभ चौघड़िया है।

2) निशीथकाल में रात्रि 9.40 से 10.19 तक कर्क लग्न तथा अमृत चौघड़िया महावसना के पूजन के लिए अत्यन्त शुभ है।

इस समय श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त, कनकधारास्तोत्र आदि का अनुष्ठान अत्यन्त मंगलकारी होगा।

इस वर्ष सिंह लग्न प्रवेश के समय रात्रि में अमावस्या नहीं है। इसलिए महानिशीथकाल में लक्ष्मीपूजन के मुहूर्त नहीं है।

दीपावली पूजन में वास्तु का रखें ध्यान...

रंगोली-

घर के प्रवेशद्वार पर रंगोली, दोनों ओर स्वास्तिक तथा घर के अंदर आते पाँवों के लाल निशान बनाएँ।

घी मिश्रित सिन्दूर से स्वस्तिक दीवार पर बनाने से वास्तुदोष का प्रभाव कम होता है।
पूजास्थल को सफेद या हल्के पीले रंग से रंगें। ये रंग शांति, पवित्रता और आध्यात्मिक प्रगति के प्रतीक हैं।
देवमूर्तियाँ-

पूजन ईशान कोण में करें, भगवान गणेश की मूर्ति को हमेशा माँ लक्ष्मी की मूर्ति की बायीं ओर रखें, माँ सरस्वती को दाहिनी तरफ रखें।
मूर्तियों को ईशान कोण में रखें, पानी की छवि एवं कलश को पूजा स्थल की पूर्व या उत्तर दिशा में रखें।

देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा चित्र पूर्व-उत्तर दीवार पर इस प्रकार रखें कि उनका मुख पश्चिम दिशा की तरफ रहे अथवा मुख्य द्वार की तरफ होना चाहिए।

घर या कार्यस्थल के किसी भी भाग में वक्रतुंड की प्रतिमा अथवा चित्र लगाए जा सकते हैं, किंतु प्रतिमा लगाते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण में नहीं हो। इसका विपरीत प्रभाव होता है।
घर में बैठे हुए गणेशजी तथा कार्यस्थल पर खड़े गणेशजी का चित्र लगाना चाहिए। किंतु यह ध्यान रखें कि खड़े गणेशजी के दोनों पैर जमीन का स्पर्श करते हुए हों, इससे कार्य में स्थिरता आने की संभावना रहती है।
कमलासना देवी की उपासना के लिए लाल आसन के नीचे कुम्हार, विमौट अथवा खेत की मिट्टी रखें

दीपमालिका-
कुम्हार के चाक पर बने चौदह दीये चौदह रत्नों के लिए, पाँच दीये गंगादि पवित्र नदियों के लिए, इष्टदेवता, कुल देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों के लिए ग्यारह दीये तथा एक दीया तुलसीजी के लिए (कुल 31 दीये) घी के रखें... पाँच लोकपाल, दस दिक्पाल, 33 वसु आदि देवों के लिए, तथा तीन ग्राम, स्थान और वास्तु देवों के लिए (कुल 51 दीये) तिल के तेल के लिए रखें.....इसे ही दीपमालिका कहते हैं...
घर के बाहर चारों दिशाओं में चार-चार दीए एक साथ...लक्ष्मी, गणेश, कुबेर और इन्द्र के लिए
घर में, सीढ़ियों पर, चारदीवारी पर, बरामदे, टैरेस और आस-पास तिल अथवा सरसों के तेल के दीए ही जलाएँ.... इनके प्रकाश से मिलकर कॉस्मिक-चुम्बकीय उर्जा हमारे अनुकूल तथा इनकी सुगन्ध से वातावरण वायरस के प्रतिकूल हो जाता है
सबसे अधिक दीए दक्षिण-पश्चिम में, उत्तर-पश्चिम में सबसे कम दीए रखें