Monday, November 16, 2015

काँचहिं बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाए

सूर्यषष्ठी यानि भगवान भुवन भास्‍कर की आराधना का महापर्व। शरद और शीत ऋतु की संधिवेला में प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा देता लोक-महापर्व। एक ऐसा महायज्ञ, जिसमें न तो पुरोहित होते हैं, न मंत्रानुष्ठान और न ही क्लिष्ट कर्मकाण्ड। एक ऐसा लोक-उत्सव, जिसमें अस्पृष्यता, ऊँच-नीच, दिखावा जैसे सामाजिक पापों के लिए कोई जगह नहीं बचती। रहता है तो बस अहंकारशून्य पूर्ण समर्पण का भाव और सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति कल्याणकारी भावोद्गार लिए लोकगीत की गूँज। ये लोकगीत ही इस अद्वितीय महापर्व के मंत्र हैं, गीत गाती नारियाँ पुरोहित, कच्चे बाँस के सूप-दौरे यजन-पात्र तथा ताम्बे का लोटा स्रुवा। वैदिक देवता सूर्य की लोकाराधना का यह महापर्व सम्पूर्ण रूप से मृत्योर्मां अमृतंगमय का प्रगटी करण है।

चाहे राजा हों या रंक, अस्पृष्य कहे जानेवाले डोमों के घर से बाँस-दौरे, मिट्टी के दीपक, आस-पास उपजे कन्द-मूल (शक्करकन्द, सूथनी), ऋतुफल, नया बादाम, ईख, गेहूँ के आटे और गूड़ से बने घी में तले अगरौटे, चावल के आटे-चीनी की कचवनिया का प्रसाद--- और कम से कम पाँच घरों से पूजन के लिए भिक्षा माँगना.... अहंकारशमन के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है! और भगवान से याचना भी कैसी?

घोड़वा चढ़न के बेटा माँगिला, नेपुर शबद पतोहु,

छठी मइया, दरसन देहूँ ना आपsन।।

यानि बेटा सामर्थ्यशाली हो, समाज की रक्षा कर सके तथा नूपुर की तरह मीठे व्यवहार वाली पुतोहु। लेकिन सबसे बड़ी बात, जो एकमात्र इस महापर्व का गुणधर्म है, वह है,

रुनुकी-झुनुकी बेटी माँगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद,

छठी मइया......

बेटा ही नहीं, घर को प्राणवान बनाने के लिए रुनझुन करती बेटी की याचना की आतुर गूँज इस महानुष्ठान की मर्यादा को अभिव्यक्त करती है। साथ ही दामाद कैसा, जो पढ़ा-लिखा हो समझदार हो... धन की कामना ही नहीं।

घाट पर अर्घ्य को खड़े व्रती को अर्घ्य दिलाने के लिए बढ़े हाथ जिस किसी भी व्यक्ति के हैं, उनके सामाजिक स्तर का ध्यान तो होता ही नहीं। प्रसाद के लिए हाथ बढ़ाकर याचना करना महापुण्य समझा जाता है।

तो आइए जानते हैं, कैसे मनाते हैं छठ महापर्व!
चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होती है। पहले दिन को नहाय-खाय कहते हैं। इस दिन परिजनों समेत स्नान कर 12 घण्टे के अंतराल पर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी आहार यानि अरवा चावल और घी और सैंधव नमक से बनी चने की दाल तथा लौकी की सब्जी प्रसाद के रूप में ग्रहण किये जाते हैं।

अगले दिन यानि पंचमी को खरना होता है। दोपहर में घाट की पूजा, भगवान को अर्घ्य देकर पूजन की शुरुआत करते हैं। रात में गन्ने का रस और चावल का जाउरया गुड़-दूध-चावल की खीर बनायी जाती है। हाथ पर थपकाकर बनी रोटी के साथ जाउर पिछली रात्रि से 24 घण्टे के उपवास के बाद रात में व्रतधारी यह प्रसाद लेते हैं। एक बैठक में बिना बोले प्रसाद-ग्रहण की परम्परा है। और फिर शुरू होता है 36 घंटे का कर्मशील निर्जला महा उपवास।

सूर्यषष्ठी के दिन सुबह सूर्योदय से पहले तैयार होकर प्रसाद बनाने की तैयारी शुरू हो जाती है। चुल्हे के सामने बिना बोले अगरौटा-कचवनिया बनाना शुरू कर देते हैं व्रती। फिर सूप-दउरे में प्रसाद सजाए जाते हैं-- शक्करकन्द, सूथनी, ऋतुफल, पानीफल सिंघाड़ा, नया बादाम, भिगोया चना, जायफल, पान-सुपारी, महावर, ईख, गेहूँ के आटे और गूड़ से बने घी में तले अगरौटे, चावल के आटे-चीनी की कचवनिया तथा ईख। अपराह्न होते ही काँचहिं बाँस के बहँगिया….’ के गुंजार के बीच माथे पर दउरा रखे, नंगे पाँव सूरज बाबा को अर्पित करने चल देते हैं परिजनों सहित व्रती। घाट पर उपलब्धतानुसार कमर भर जल में प्रार्थना करते, निहारते खड़े रहते हैं अस्ताचलगामी सूर्य को। फिर सूप में अर्घ्य सजाकर दो बार दूध और तीन बार जल से अर्घ्य दे परिक्रमा करते हैं। सम्भव हो तो रात्रिवास घाट पर ही करते हैं।

सप्तमी की सुबह उषाकाल में ही जल में खड़े सूर्य की प्रतीक्षा प्रारम्भ हो जाती है। उगते सूर्य को तीन बार दूध और दो बार जल से अर्घ्य देकर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है।

व्रत की पूर्णता पारण से होती है। घाट पर ही धूप-दीप-गन्ध से आदित्यनारायण की पूजा कर प्रसाद-शर्बत से पारण किया जाता है।

आइए, भगवान भुवन भास्कर की अभ्यर्थना को करबद्ध खड़े होकर सुदृढ़ समाज की याचना करें...

सर्वे भवन्तु सुखिनः......

 

Saturday, November 7, 2015


श्री-वरदा हो दीपावली

इस वर्ष 11 नवम्बर 2015, बुधवार को स्वाती/विशाखा नक्षत्र, सौभाग्य योग, अमावस्यायुक्त प्रदोष तथा निशीथ योगों से युक्त दीपावली अत्यन्त शुभप्रद है। कुम्हार के चाक पर बने मिट्टी के दीए ही पूजा के अत्यन्त उपयुक्त होते हैं। साथ ही दीपक में जलते तेल की गन्ध मानवमात्र के लिए अहानिकारक किन्तु कीट-विषाणु-रोधक होने से तैलपूर्ण दीए का ही प्रयोग सर्वथा उचित है। मोमबत्ती का जलता मोम मानव के फेफड़ों के साथ ही पर्यावरण के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक है। इसलिए मोम के प्रयोग से हरसम्भव बचना चाहिए।

लोकत्योहार है दीपावली, इसलिए सामुहिकता दिखती है,

लक्ष्मी पर्व है, इसलिए मिट्टी के दीपक, मिट्टी की प्रतिमा, मिट्टी के कलश ही उपयोग में लाए जाते हैं,

स्थावरोत्सव है, क्योंकि जिस भूभाग में हैं, उसी भूभाग की मिट्टी से बने सामान प्रयोग में लाए जाते हैं।

सद्गृहस्थों के लिए महावसना पूजन के शुभ मुहूर्त:
पश्चिमी भारत (दिल्ली, मेरठ, जयपुर, लुधियाना, अमृतसर)

1) प्रदोषकाल में शाम 5.43 से 7.38 तक (स्थिर वृष लग्न, विशाखानक्षत्र), सायम् 7.09 से 08.50 तक शुभ चौघड़िया है।

2) निशीथकाल में रात्रि 9.52 से 10.31 तक कर्क लग्न तथा अमृत चौघड़िया महावसना के पूजन के लिए अत्यन्त शुभ है।

पूर्वी भारत (इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, राँची, गोरखपुर, टाटानगर)

1) प्रदोषकाल में शाम 5.07 से 7.26 तक (स्थिर वृष लग्न, विशाखानक्षत्र), सायम् 7.09 से 08.50 तक शुभ चौघड़िया है।

2) निशीथकाल में रात्रि 9.40 से 10.19 तक कर्क लग्न तथा अमृत चौघड़िया महावसना के पूजन के लिए अत्यन्त शुभ है।

इस समय श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त, कनकधारास्तोत्र आदि का अनुष्ठान अत्यन्त मंगलकारी होगा।

इस वर्ष सिंह लग्न प्रवेश के समय रात्रि में अमावस्या नहीं है। इसलिए महानिशीथकाल में लक्ष्मीपूजन के मुहूर्त नहीं है।

दीपावली पूजन में वास्तु का रखें ध्यान...

रंगोली-

घर के प्रवेशद्वार पर रंगोली, दोनों ओर स्वास्तिक तथा घर के अंदर आते पाँवों के लाल निशान बनाएँ।

घी मिश्रित सिन्दूर से स्वस्तिक दीवार पर बनाने से वास्तुदोष का प्रभाव कम होता है।
पूजास्थल को सफेद या हल्के पीले रंग से रंगें। ये रंग शांति, पवित्रता और आध्यात्मिक प्रगति के प्रतीक हैं।
देवमूर्तियाँ-

पूजन ईशान कोण में करें, भगवान गणेश की मूर्ति को हमेशा माँ लक्ष्मी की मूर्ति की बायीं ओर रखें, माँ सरस्वती को दाहिनी तरफ रखें।
मूर्तियों को ईशान कोण में रखें, पानी की छवि एवं कलश को पूजा स्थल की पूर्व या उत्तर दिशा में रखें।

देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा चित्र पूर्व-उत्तर दीवार पर इस प्रकार रखें कि उनका मुख पश्चिम दिशा की तरफ रहे अथवा मुख्य द्वार की तरफ होना चाहिए।

घर या कार्यस्थल के किसी भी भाग में वक्रतुंड की प्रतिमा अथवा चित्र लगाए जा सकते हैं, किंतु प्रतिमा लगाते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण में नहीं हो। इसका विपरीत प्रभाव होता है।
घर में बैठे हुए गणेशजी तथा कार्यस्थल पर खड़े गणेशजी का चित्र लगाना चाहिए। किंतु यह ध्यान रखें कि खड़े गणेशजी के दोनों पैर जमीन का स्पर्श करते हुए हों, इससे कार्य में स्थिरता आने की संभावना रहती है।
कमलासना देवी की उपासना के लिए लाल आसन के नीचे कुम्हार, विमौट अथवा खेत की मिट्टी रखें

दीपमालिका-
कुम्हार के चाक पर बने चौदह दीये चौदह रत्नों के लिए, पाँच दीये गंगादि पवित्र नदियों के लिए, इष्टदेवता, कुल देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों के लिए ग्यारह दीये तथा एक दीया तुलसीजी के लिए (कुल 31 दीये) घी के रखें... पाँच लोकपाल, दस दिक्पाल, 33 वसु आदि देवों के लिए, तथा तीन ग्राम, स्थान और वास्तु देवों के लिए (कुल 51 दीये) तिल के तेल के लिए रखें.....इसे ही दीपमालिका कहते हैं...
घर के बाहर चारों दिशाओं में चार-चार दीए एक साथ...लक्ष्मी, गणेश, कुबेर और इन्द्र के लिए
घर में, सीढ़ियों पर, चारदीवारी पर, बरामदे, टैरेस और आस-पास तिल अथवा सरसों के तेल के दीए ही जलाएँ.... इनके प्रकाश से मिलकर कॉस्मिक-चुम्बकीय उर्जा हमारे अनुकूल तथा इनकी सुगन्ध से वातावरण वायरस के प्रतिकूल हो जाता है
सबसे अधिक दीए दक्षिण-पश्चिम में, उत्तर-पश्चिम में सबसे कम दीए रखें

Thursday, September 3, 2015

महायोगों से युक्त योगेश्वर की जन्म जयन्ती-2015


जब-जब पृथ्वी पर सत्तामद में चूर अहंकारी अधर्मी असुरों की वृद्धि होती है, जब-जब अपने को
अजर-अमर समझकर सत्तासीन क्रूरता नीति का सर्वथा त्याग कर देती है
, जब-जब धर्म की हानि होती है और समूची धरती इनके अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर उठती है, तब-तब पृथ्वी पर सज्जनों की पीड़ा हरने के लिए विविध मनुज-शरीरों में कृपानिधि भगवान ने अवतार लिया है—

जब जब होहिं धरम के हानी। बाढैं असुर अधम अभिमानी।।

करहीं अनीति जाई नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

इसी शृंखला में श्वेतवाराह कल्प में वैवश्वत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें द्वापर युग में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि में पृथ्वी का संकट हरने के लिए मथुरा में माता देवकी के गर्भ से भगवान कृष्ण ने अवतार लिया--एक ऐसा अवतार जिसने विश्व को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत होने, युगानुकूल धर्माचरण में प्रवृत्त करने तथा वंश-परिवारवाद से ऊपर उठकर समष्टिहित में अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होने का गीतारुपी विगुल फूँका तथा जिनके स्मरण मात्र से
दैहिक-दैविक-भौतिक त्रिविध संताप नष्ट हो जाते हैं।  

मनीषा ने साधना के लिए चार रात्रियों का विशेष माहात्म्य बताया है-  कालरात्रि (दीपावली), महारात्रि (दुर्गाष्टमी), मोहरात्रि (श्रीकृष्णजन्माष्टमी) और शिवरात्रि। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराजकहा गया है। जिनके जन्म के संयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श कर धन्य-धन्य हो गईं- उन भगवान श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण सृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना  गया है। इसी कारण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते, नाम-कीर्तन करते अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है, प्राणियों के सब क्लेश दूर हो जाते हैं,
दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है और इस लोक में सुख भोग कर मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छूटकर परमलोक को प्राप्त करता है।

इस वर्ष श्रीकृष्णाष्टमी का व्रत 5 सितम्बर (शनिवार) को है। श्रीकृष्णाष्टमी के छः तत्व हैं--
1) भाद्रपद कृष्णपक्ष, 2), वृषगत चन्द्र 3) अर्द्धरात्रि, 4) अष्टमीतिथि, 5) रोहिणी नक्षत्र और 6) सोमवार दिन

अनेक वर्षों के बाद इस वर्ष अर्द्धरात्रि में मास-पक्ष-तिथि-राशि-नक्षत्र का दुर्लभ संयोग जयन्तीनामक श्रीकृष्णजन्माष्टमी को महापुण्यप्रदायक बना रहा है।

रोहिण्यां अर्धरात्रे च यदा कृष्णाष्टमी भवेत्। तस्यां अभ्यर्चनं शौरेः हन्ति पापं त्रिजन्मजं।।

श्रीकृष्णजन्मोत्सव का पावन समय रात्रि 5 सितम्बर (शनिवार)11.36 पर है। कृष्णव्रत का पारण 6 सितम्बर (रविवार) को सूर्योदय के पश्चात् प्रथम प्रहर में 7.35 के बाद अपेक्षित है।

पुराणों  के अनुसार जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराज के अनुष्ठान से सभी को प्रेय और श्रेय दोनों की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं, दुख-दरिद्रता का नाश होता है। जीवनसाथी, संतान, आरोग्य, आजीविका आदि  सहज सुलभ हो जाते हैं।

व्रत-विधि---- इस व्रत को करने वाले व्रत के एक दिन पूर्व हल्का-सात्विक भोजन करें तथा पूजन-स्थान की सफाई कर लें। उपवास वाले दिन सूर्योदय से पहले उठकर, स्नान आदि नित्यक्रिया से निवृत होकर पूजन-स्थान पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठें। घी का दीपक या धूपबत्ती या दोनों जलाकर गणेश-अम्बिका, पार्वती-शंकर, इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, स्थानदेवता और लोकपालों का ध्यान कर हथेली पर जल, अक्षत, सुपारी, फूल और द्रव्य रखकर मन में अपनी कामना-पूर्ति की इच्छा के साथ उपवास सहित व्रत का संकल्प करें-

संकल्प--- मम  अखिल पाप प्रशमनपूर्वकं सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्णाष्टमी व्रतोपवासं अहं करिष्ये।

संकल्पित होकर संयमपूर्वक मन, वाणी और शरीर से पवित्र रहकर व्रत का पालन करें। उपवास के दिन झूठ बोलने, जुआ खेलने, सज्जनों-स्त्रियों का अपमान करने तथा अपशब्द बोलने से बचें। व्रत के दिन बार-बार जल पीने से, एक ही बार पान-तम्बाकु के उपभोग से, दिन में सोने से तथा मैथुन से व्रत भंग हो जाता है।

असकृज्जलपानाच्च सकृत्ताम्बूलचर्वणात्।

उपवासः प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात्।।

ध्यान रहे कि विवशता में उपवास का कोई मतलब नहीं है। यदि पूर्ण निराहार नहीं कर सकें तो फलाहार, दुग्धपान कर सकते हैं किन्तु फलाहार के नाम पर चाट-पकौड़े, पकौड़ी, आलू की टिक्की आदि का सेवन बिल्कुल ही ना करें। इन्द्रियों पर संयम ना हो तो व्रत कदापि न करें। माता देवकी सहित वासुदेव श्रीकृष्ण का ध्यान करते, नाम-कीर्तन करते अथवा मंत्र जपते हुए रात्रि जागरण करें। यदि पूरी रात नहीं जग सकें तो भगवान् के जन्मकाल के समय पूजन-आरती तक अवश्य जगें।

श्रीकृष्णजन्माष्टमी पूजन विधि—

सूर्यास्त के बाद स्नानादि से निवृत होकर पूजा-स्थान पर सपरिवार बैठकर भगवान का गर्भवास स्थिर लग्न में शाम 8:15 के पहले कर लें। इसके लिये काँसे के कटोरे में दूध डालकर उसमें लड्डूगोपाल की प्रतिमा अथवा शालिग्राम रखें तथा ढक दें। अखण्ड दीप जलाकर पूजन-थाली सजा लें—

सामग्री—

कलश, काँसे की थाली, गंगाजल, अक्षत, सुपारी, पान के पत्ते, चन्दन, रोली, सिन्दूर, धूप, दीपक, कपूर, रूई की बत्ती, माचिस, मौली, एक साफ रुमाल, भगवान के कपड़े, मुकुट, मोरपंख, बाँसुरी, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और शक्कर), फल (ऋतुफल तथा खीरा) फूल, तुलसीदल, कुशा, आम के पत्ते तथा नजर उतारने के लिये अजवाइन और मिट्टी का कसोरा रख लें।

सविधि कलश स्थापित कर लें।

अब प्रसाद तैयार करें—

प्रसूता को दी जानेवाली हल्दी तथा अछवाइन (सूखे मेवों का पाक), भूनी धनिया और शक्कर का चूर्ण, साबूदाने की खीर, सिंघाड़े का हलवा, माखन,

इसके बाद अपनी श्रद्धा से पुरुष सूक्त, श्री गजेन्द्र-मोक्ष (विपत्तिनाश के लिये), श्री विष्णु-सहस्रनाम आदि से भगवान् की स्तुति करें और सामर्थ्य भर जप-कीर्तन करें।

 कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव

जन्मकाल के ठीक पहले श्रीमन्महागणाधिपतये नमः गौरी देव्यै नमः, श्रीलक्ष्मीनारायणाभ्याम् नमः, उमामहेश्वराभ्याम् नमः, वाणीहिरण्यगर्भाभ्याम् नमः, शचीपुरन्दराभ्याम् नमः, देवक्यै नमः, वसुदेवाय नमः, नन्दराजाय नमः, यशोदायै नमः, बलभद्राय नमः, सुभद्रायै नमः का पाठ-उच्चारण करें तथा हाथ में फूल-अक्षत लेकर माता देवकी की पूजा करें—

प्रणमे देव-जननी त्वया जातस्तुवामनः

गायद्भिः किन्नराद्यैः सतत परिवृता वेणुवीणानिनादैः

भृङ्गारादर्शकुम्भप्रवरयुतकरैः सेव्यमाना मुनीन्द्रैः

पर्यङ्के राजमाना प्रमुदितवदना पुत्रिणी सम्यगास्ते

सा देवी-देवमाता जयति सुरमुखा देवकी कान्तरूपा

जन्म-समय पर श्री रामचरितमानस के राम-जन्म के छन्द काँसे की थाली और ताली की थाप तथा जयघोष के साथ पढ़ें—

भये प्रगट कृपाला, दीन दयाला, कौसल्या हितकारी.....

भगवान् को दूध से निकालकर स्नान, पंचामृत स्नान, स्वच्छ जल से पुनः स्नान करायें तथा रुमाल से पोंछकर वस्त्रादि से सज्जित करें। मिट्टी के कसोरे में कपूर जलाकर अजवायन से भगवान् की नजर उतारें। अब उनका सविधि उपचारों से पूजन करें और भोग अर्पित करें। अन्त में आरती उतारें, प्रार्थना करें और पुष्पाञ्जली दें।

व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद माता के साथ बालकृष्ण की पूजा-अर्चना करें। सत्पात्रों को यथाशक्ति दान देकर पारण करें।

सम्पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से किया गया यह व्रत सभी अभीष्ट देनेवाला हो- इसी के साथ सबको श्रीकृष्णाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

Tuesday, August 18, 2015

नागपंचमी... 19.08.2015


सर्वार्थसिद्धि योग और रवियोग युक्त श्रावणमास के अन्यतम पर्वों में से एक... बुधवार का दिन,

1)नागपंचमी सावन शुक्ल पंचमी में ही क्यों......

सब जानते हैं कि वर्षाऋतु में नागजाति बिल में पानी भर जाने से बाहर निकलते हैं। अंधकारप्रिय होने के कारण और बिलों से बाहर निकल जाने के कारण श्रावण शुक्ल पंचमी प्रत्यक्ष नागपूजन का उपयुक्त अवसर है क्योंकि इस दिन प्रकाश कुछ ही देर तक रहता है, अंधकार की बहुलता होती है।

पंचमी तिथि के स्वामी नाग होते हैं। अग्निपुराण के अनुसार, शेष आदि दिव्य सर्पों का पूजन पंचमी को करें।

2) नागपूजन की पौराणिक मान्यताएँ.....

वैसे तो साँप एक सामान्य जीव है, लेकिन देवता के रूप में बारह दिव्यसर्पों का उल्लेख वेदों में मिलता है। अहिबुद्घ नामक नाग की पूजा का प्रमाण ऋग्वेद में मिलता है। इस पर्व से संबंधित कई लोक-कथाएँ एवं मान्यताएँ जुड़ी हुयी हैं।

कहा जाता है कि एक बार नागराज तक्षक ने सम्राट परीक्षित को डँस लिया। इससे उसका पुत्र जनमेजय बहुत ही क्रोधित हुआ। तक्षक से अपने पिता का प्रतिशोध लेने का निश्टय कर उसने नागविनाश के लिए नागमेध यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। तब देवर्षि नारद सम्राट जनमेजय के पास पहुँचे और उसे भलीभांति समझाया। प्रायश्चित स्वरूप उसने नागों की पूजा की। मान्यता है कि उसी दिन से प्रतिवर्ष श्रावणशुक्ल की पंचमी तिथि को नागपंचमी मनायी जाने लगी। श्रीमहाभारत के आदिपर्व में आस्तीकखण्ड के 58वें अध्याय में उल्लिखित है कि इस यज्ञ में आस्तीक मुनि ने सर्पों से वचन लिया था। इसलिए आस्तीक मुनि के वचनों के पाठ और जप से सर्पदोषों से तत्क्षण मुक्ति मिल जाती है।

 

यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारौ महावशाः।

आस्तीकः सर्पसत्रे वः पन्नगान्योभ्यरक्षत।

तं स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितुमर्हथ।

सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।

जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।

आस्तीकस्य वच श्रुत्वा यः सर्पः न निवर्तते।

शतधा भिद्यते मुर्धा शिंशवृक्ष फलं यथा।।

 

पुराणों के अनुसार, यमुना नदी में एक भयंकर जहरीला विशाल कालिय नाग रहता था। उसके विष से नदी का जल ही नहीं, आसपास के पेड़-पौधे, वनस्पतियां, मिट्टी तक विषैली हो गयी थी। ब्रजवासी उसके आतंक से पीड़ित थे। लोगों की प्रार्थना पर भगवान श्रीकृष्ण ने कालिय नाग को कालियदह से दूर समुद्र में जाने का आदेश दिया। कालिय नाग से मुक्ति के उपलक्ष्य में नागपंचमी का पर्व मनाया जाने लगा।

3) लोक-कथाओं में भी नागपंचमी का महत्व अनेकों तरह से गाया गया है। एक लोककथा के अनुसार किसी गाँव में एक किसान अपने सात बेटों और सात बहुओं के साथ रहता थानमें छोटी बहू का कोई मायका नहीं था, इससे वह तीज-त्योहारों पर काफी दुःखी हो जाती थी। उस पर तरस खाकर सावन के महीने में एक दिन शेषनाग उस किसान के घर आये और खुद को उसका दूर का रिश्तेदार बताया और बहु को अपने घर विदा कराकर ले जाने की प्रार्थना की। किसान ने छोटी बहू को शेषनाग के साथ भेज दिया। छोटी बहू शेषनाग के घर में आनंद से रहने लगी। एक दिन भूल से एक जलता हुआ दीपक शेषनाग के दो बच्चों पर गिर पड़ा, जिससे बच्चों की पूँछ कट गयी। शेषनाग कुछ न बोले और समय पर छोटी बहू को उसकी ससुराल पहुँचा दिया। जब शेषनाग के बच्चे बड़े हुए और उनकी पूंछ कटने की बात उनको मालूम हुई तो वे दोनों छोटी बहू को डँसने के लिए किसान के घर में चुपके से आ पहूँचे। उन्होंने देखा कि छोटी बहू अपने नाग भाइयों के कल्याण की कामना कर रही थी। इससे वे दोनों नाग के बच्चे अति प्रसन्न होकर अपनी बहन को उपहारस्वरूप बहुमूल्य मणिमाला देकर विदा हुए। उस दिन श्रावण मा के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि थी। लोकमान्यता है कि सी दिन से नाग-पंचमी मनाने की परंपरा चल पड़ी।

4) कैसे करें नागपूजन....

वैदिक काल से ही दिव्य सर्पों का पूजन होता आ रहा है। नमोस्तु सर्पेभ्यःआदि वैदिक मंत्र तथा नारायण बलि आदि वैदिक कर्मकाण्ड सर्पों की महिमा का ही बखान करते रहे हैं। भगवान शंकर कहते हैं कि यह पंचमी देवताओं को भी दुर्लभ है। दिव्य सर्पों की पूजा का पर्व नागपंचमीश्रावण मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को सारे देश में श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। इस दिन दिनभर का व्रत और पूजन के बाद सायंकाल एक ही बार के भोजन करने का विधान है। क्षमतानुसार सोना, चाँदी, लकड़ी या मिट्टी अथवा गोबर से नाग की मूर्ति बनाकर उसे प्रातःकाल पंचामृत, करवीर, कमल, सुगन्ध, धूप, दूध, लावा, खीर तथा विभिन्न पूजन सामग्रियों से नाग देवता का पूजन करें तथा प्रणाम कर अभयदान की प्रार्थना करें।

द्वादश नाग...

अनन्त, वासुकी, शेष, पद्म, कंबल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक, और पिंगल.. ये बारह नाग एक-एक महीने के स्वामी हैं।

इनकी पूजा इनके नामों से आज करने से सर्प, विष, शत्रु कालसर्प दोष आदि से तत्काल मुक्ति मिल जाती है।

इसके अलावा ब्राह्मणों को भोजनादि कराकर दान-दक्षिणा दी जाती है। इस दिन नागों को दूध से विशेष रूप से स्नान कराया जाता है। विश्वास है कि नाग-पूजा से धन की रक्षा, अच्छी सेहत, स्वस्थ संतान, दीर्घ जीवन आदि का आशीर्वाद मिलता है।

5) कालसर्प जनित अनिष्ट की शांति का उत्तम दिन...
इस तिथि को चंद्रमा की राशि कन्या होती है और राहु का स्वगृह कन्या राशि है। राहु के लिए प्रशस्त तिथि, नक्षत्र एव स्वगृही राशि होने के कारण नागपंचमी कालसर्प दोष की शांति के लिए उत्तम दिन माना जाता है। कालसर्प दोष की शान्ति के लिए नागपूजा एवं नारायण बलि करें। पंचमी तिथि को भगवान शंकर भी सुस्थानगत होते हैं। इसलिए इस दिन सर्पशांति के अंतर्गत राहु-केतु का जप, दान, हवन आदि उपयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त अन्य दुर्योगों के लिए भगवान शिव का अभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र का जप, यज्ञ, शिवसहस्रनाम का पाठ, गाय और बकरे के दान का भी विधान है।

नागगायत्री और द्वादशनाग का जप कर दशांश हवन से कालसर्प की शान्ति हो जाती है।

नाग गायत्री मंत्र..

ऊँ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीहि तन्नो सर्पः प्रचोदयात्

 

 

Saturday, August 1, 2015

सावन-2015 में कैसे करें शिवपूजन


 
एक अगस्त, शनिवार से श्रावण मास प्रारंभ होगा. श्रवण से शुरू और श्रवण में पूर्णिमा का आगमन....वामनरूप विष्णु श्रवण के देवता हैं तथा सोम यानि चन्द्रमा स्वामी.... कष्टमुक्ति, स्थिर आरोग्य और परम ऐश्वर्यदायी होगी इस सावन में भोलेभंडारी की आराधना।

उर्ध्वमुख और चर संज्ञक श्रवण नक्षत्र में आयुष्मान योग, सर्वार्थ सिद्धियोग, यायिजय योग और द्विपुष्कर योग है। इस योग में भगवान आशुतोष की आराधना परम ऐश्वर्य का वरदान देती है। जिनकी कुंडली में कालसर्प योग, गुरु चंडाल योग, पितृ दोष अथवा केमद्रुम योग है,...मारकेश की दशा भुक्ति है, अथवा शनितुल्य क्रूर ग्रहों के गोचर से आय पर संकट आ खड़ा हुआ है, उन्हें इस सावन के प्रथम दिन लघुरुद्राभिषेक करना चाहिये।

इस सावन 5 शनिवार हैं....... शनिवार के व्रत करने, शनिवार को शमीपत्र, धत्तूर तथा कालेतिल युक्त दूध से भगवान आशुतोष की पूजा करने तथा पंचामृत से अभिषेक करने से अवग्रहों की कुटिल दृष्टि से मुक्ति मिलेगी, स्थिर आरोग्य और ऐश्वर्य प्राप्त होगा।

इस सावन के चारों सोमवार चतुर्विध पुरुषार्थ देने वाले हैं.... इस सावन के पहले सोमवार (3 अगस्त) को शतभिषा नक्षत्र व गणेश चतुर्थी है...संतानसुख में आयी बाधा इस सोमव्रत से अवश्य दूर होगी।

दूसरे सोमवार (10 अगस्त) को कामिनी एकादशी के दिन शिवार्चना धन-सम्पदा-ऐश्वर्य की कामना पूर्ण करने वाली है।

तीसरे सोमवार 17 अगस्त को पू. फा. नक्षत्र में गौरी पूजन व हरियाली तीज का व्रत होगा। यह व्रत दाम्पत्यसुख के लिए अत्यन्त शुभ है।

 24 अगस्त को अंतिम सोमवार को नवमी तिथि व ज्येष्ठा नक्षत्र का संयोग है... साम्बसदाशिव की आराधना मोक्षदायक होगी.....

सावन में कैसे करें शिवपूजा

सावन में पार्थिव पूजन... सावन में मनसा पूजन, पार्थिव पूजन अथवा ज्योतिर्लिंगों के पूजन का बहुत महत्व है। पार्थिवपूजन से आशुतोष शीघ्र प्रसन्न होते हैं।

 

पूजन सामग्री-

मिट्टी शमी या पीपल के जड़ की, विमौट(दीमक की मिट्टी), गंगादि पवित्र स्थानों की मिट्टी, किसी पवित्र स्थान पर जमीन के चार अंगुल नीचे की मिट्टी

- फूल, अक्षत, रोली, सिंदूर, भस्म, पान, सुपारी, लौंग, ईलायची, पंचमेवा, रूद्राक्ष की माला, बत्ती, मिट्टी के दीपक, जनेऊ, अगरबत्ती, बेलपत्र, मिट्टी का कटोरा, माचिस, कपूर, धतुर फल, दूब, कुश, गंगाजल, घी, दूध, दही, शहद, शक्कर, ऋतुफल, कांसे की प्लेट, पूजा की थाली, पूजा के लिये स्वच्छ जल, कांसे का परात, कांसे का कटोरा, पेंदी में बारीक छेद किया हुआ तांबे का लोटा या शृंगी।

पूजन-विधि

- कुशा की पवित्री धारण कर आचमन करें तथा रक्षा दीप जला लें।

- ऊँ ह्राँ पृथिव्यै नमः का जप करते हुए कांसे की प्लेट में आवश्यकतानुसार मिट्टी लेकर पानी का थोड़ा छींटा डालें।

- हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर गणपति के साथ माता गौरी का स्मरण करें और सादर पुष्प-अक्षत परात में डाल दें। परात के बीच में कांसे का औंधा कटोरा रख दें।

- दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र [मिट्टी का कटोरा] लेकर उसमें तीन कुश, सुपारी, पुष्प, अक्षत, जल और द्रव्य रखकर इच्छा का संकल्प करें और वहीं सामने रख दें।

- ऊँ नमः शिवाय-- इस मंत्र का लगातार जप करते हुए मिट्टी से शिवलिंग गढ़ें। शिवलिंग अंगूठे से बड़ा न हो।

- कांसे के औंधे कटोरे पर बेलपत्र रखकर उसपर शिवलिंग रखें। शिवलिंग पर मिट्टी की छोटी गोली रखें। उस लिंग के चारों ओर दस लिंग रखें।

- ग्यारह लिंगों को पान के पत्ते अथवा बेलपत्र से ढक दें जिससे पानी आदि से लिंग की मिट्टी न बहे।

- फिर मंत्र ऊं नमो भगवते सांबसदाशिव पार्थिवेश्वराय नमः का जप करते हुए माता पार्वती के साथ भगवान् शंकर के आवाह्न, प्राणप्रतिष्ठा और आसन के लिये शिवलिंग पर फूल-अक्षत अर्पित करें। फिर अर्घ्य,पाद्य, आचमन और स्नान के लिये जल अर्पित करें। फिर पंचामृतस्नान, शुद्ध स्नान और आचमन निवेदित करें।

अभिषेक-विधि.....

छिद्रदार लोटे या शृंगी में केसर मिश्रित दूध अथवा अपनी कामना के अनुसार द्रव्य भरकर से भगवान् का अभिषेक करें।

अभिषेक मंत्र ....

ऊँ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च

नमः शंकराय च मयस्कराय च

नमः शिवाय च शिवतराय च

इस मंत्र से भगवान का अभिषेक करें (108 बार मंत्र)

- फिर ऊँ नमो भगवते सांबसदाशिव पार्थिवेश्वराय नमः का जप करते हुए शुद्ध स्नान, आचमन, वस्त्र, जनेऊ, आचमन, चंदन, भस्म, अक्षत और पुष्प अर्पित करें।

फिर बेलपत्र पर चन्दन से राम-राम लिखकर भगवान् को अर्पित करें।

फिर ऊँ नमो भगवते सांबसदाशिव पार्थिवेश्वराय नमः का जप करते हुए दूब, धूप, दीप, नैवेद्य [पञ्चमेवा],आचमन, ऋतुफल, धतूर फल और लौंग-सुपारी युक्त पान अर्पित करें।

 

- आरती करें, क्षमा प्रार्थना और कार्य सिद्धि की प्रार्थना करते हुए पुष्पांजली दें।

- आधी प्रदक्षिणा करें और फिर आने का आग्रह करते हुए विसर्जित करें।

- विसर्जन के लिये ऊँ शान्तिः ऊँ शान्तिः ऊँ शान्तिः कहते हुये परात हिला दें और सावधानी से पूजन-सामग्री सहित शिवलिंग उठाकर किसी नदी, तालाब अथवा पीपल के पेड़ के नीचे रख दें।

 
जो श्रद्धालू मंदिर जाकर पूजा करेंगे वे आधी प्रदक्षिणा कर अर्घे से गिरती जलधारा से जल लेकर पान करेंगे..घर आकर सभी जगह छींट देंगे।

 

भगवान शिव के पूजन क्रम में रुद्राभिषेक अतीव फलदायी माना गया है। विशेष कामनाओं के लिए विशेष द्रव्य से अभिषेक का विधान कहा गया है

व्याधि शान्ति के लिए कुशोदक से

श्रीसम्पन्नता हेतु गन्ने के रस से

धन के लिए शहद

मोक्ष के लिए तीर्थ-जल से

संतान प्राप्ति हेतु गोदुग्ध से

शत्रुमुक्ति के लिए सरसों के तेल से

विवाह के लिए केसर -हल्दी मिश्रित दुध से अभिषेक करना चाहिए।