Wednesday, April 17, 2013

'पराभव' की आशंकाएँ



बृहस्पतिवार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा 2070 विक्रमाब्द (11 अप्रैल 2013 ईस्वी) से आठवें युग तथा विष्णुविंशति के अंतिम संवत्सर का आरंभ हुआ है, जिसे शास्त्रों ने पराभव नाम से अभिहित किया है। रविवार, चैत्र कृष्ण अमावस्या 2070 विक्रमाब्द (30 मार्च 2014 ई.) तक प्रसरित पराभव की अवधि 354 दिनों की होगी। 
शास्त्रों के अनुसार पराभव में राजाओं (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शासक दल, केन्द्र-राज्य शासन, विभिन्न राजनैतिक दल) में शत्रुता और शक्तिपरीक्षण की स्थिति विकट होती दिखती है। उपयोगी वर्षा कम होने से फसल उत्पादन में कमी के कारण जन-असंतोष विद्रोह का रूप ले सकता है। दलहन का उत्पादन प्रचूरता में होगा किन्तु ग्रैष्मिक धान्य और औषधियों की उपज कम होने से इनके दाम आसमान चूमने लगेंगे। सरकार की जिद और कमजोरी के कारण कल्याणकारी कार्य कमजोर पड़ेंगे। मौसम की प्रतिकूलता के कारण फसलों का उत्पादन कम होगा, जनता अज्ञात रोगों के प्रकोप में पड़ सकती है।
दक्षिणी राज्यों में राजनैतिक अस्थिरता बढ़ेगी। केन्द्र और कुछ राज्यों में सत्ता परिवर्तन की संभावना है। अपराध, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने में केन्द्र सरकार की हिचकिचाहट स्पष्ट दिखेगी। सरकार के अंग और मंत्रियों में तालमेल की कमी से राष्ट्रीय- अंताराष्ट्रीय मंचों पर शर्मसार कर देने वाले हालातों से दो-चार होना पड़ेगा।
पीडिताश्च प्रजाः सर्वाः क्षुधार्ताः स्युः पराभवे।
धान्यौषधानि नश्यन्ति ग्रीष्मे वर्षति माधवः।।
पराभवाब्दे राज्ञां स्यात् समरः सह शत्रुभिः।
आमयः क्षुद्र सस्यानि प्रभूतान्यल्प वृष्टयः।।
भीषण अग्निकाण्डों (अग्निकाण्ड, युद्धजन्य और आतंकी विस्फोटों तथा ज्वालामुखी उत्सर्जन), रोगों तथा उपयोगी वृष्टि में पर्याप्त कमी से प्रजा (जनसामान्य) भयभीत होगी, पीड़ित होगी।
पीडिताश्च प्रजाः सर्वा भयभीताः पराभवे ।।
पराभवे अग्निःशस्त्रामयार्तिः द्विज गो भयम् च — (बृहत्संहिता)
बृहस्पतिवार को वर्ष प्रवेश होने और शनिवार को मेष संक्रांति होने के कारण इस वर्ष राजा देवगुरू बृहस्पति और मंत्री सूर्यपुत्र शनि हैं। सूर्य की विभिन्न संक्रान्तियों के आधार पर सस्येश और नीरसेश मंगल, धान्येश सूर्य, मेघेश और फलेश शनि हैं। इस वर्ष रसेश गुरु हैं और दुर्ग, सैन्यादि के स्वामी शनि हैं।
संवत्सर प्रवेश के समय मात्र तीन ग्रह शुभ मण्डलों (सूर्य और मंगल वरुणमण्डल तथा गुरू चन्द्रमण्डल) में जबकि चन्द्रमा और शनि सहित छः ग्रह अशुभ मण्डलों (चन्द्रमा, शुक्र और शनि वायुमण्डल तथा बुध, राहु और केतु अग्निमण्डल) में स्थित हैं।
इस वर्ष अमेरिका, अफगानिस्तान, नेपाल, कोरिया, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, चीन, सहित मध्य-एशिया के देशों में राजनैतिक उपद्रव, आर्थिक संकट तथा अज्ञात रोगों के साथ आतंकी घटनाओं में वृद्धि की आशंकाएँ हैं।
तुलायां तु यदा सौरिः क्रूरग्रह समन्वितः।
त्रिभागशेषा पृथिवी-मांस-शोणित कर्दमैः।।
संहिताओं का स्पष्ट संकेत है कि भारत के समुद्र तटवर्ती और जम्मु-कश्मीर सहित उत्तरी तथा पश्चिमी भूभाग प्राकृतिक प्रकोपों के चपेट में हैं। विनाशकारी भूकम्प, समुद्री तुफान, बादल फटना और भयंकर वृष्टि से जान-माल की हानि के दुर्योग हैं। जापान, इण्डोनेशिया, पाकिस्तान, चीन, सहित मध्य-एशिया के देशों में, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इंग्लैंड एवम्  मेष, सिंह, तुला और वृश्चिक प्रभाव राशि के देशों खासकर समुद्रवर्ती भूभाग भयावह तुफानों, भूकम्पों तथा भीषण वाहन-यान दुर्घटनाओं के शिकार होंगे।
भूकम्पादि महोत्पातो जायते यत्र मण्डले
तत्तत्स्वाभावजम् द्रव्यम् जन्तून देशाञ्च पीड़येत् ।।
उत्तरांचल, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के राज्य, उड़ीसा, झारखण्ड और बंगाल में हिंसक घटनाओं पर नियन्त्रण पाना चुनौतीपूर्ण होगा।
15 अप्रैल 2013 से 22 जून तक फिर 17 जुलाई से सितम्बर तक जन- मन को अस्थिर कर देने वाले समाचार सुर्खियाँ बटोरेंगे। ताकतवर देशों में तनाव बढेंगे। कृषि उत्पादन, उद्योग, खनिज और धातुओं के व्यापार वैश्विक मन्दी रहेगी। तकनीक-कुशल लोगों (मिस्त्री, मैकेनिक, इंजीनियर, आर्किटेक्ट), शारीरिक श्रम करने वालों मजदूरों, ड्राइवर, पानी एवं हवाई जहाज के संचालकों की खूब माँग रहेगी। देश में व्यक्तिगत सुरक्षा गार्डों की माँग भी बढती दिख रही है, साथ ही सुरक्षा और बचाव करने वाले यंत्रों की माँग में वृद्धि के भी योग हैं। पुलिस, अर्धसैनिक बलों और सेना में बहाली पर जोर दिखेगा। मनोरंजन तथा व्यक्तिगत उपभोग में आनेवाले गैजेटों की बिक्री जोरों पर होगी।
मंगल ग्रह रसेश-निरसेश मात्र होने से वर्ष 2013 में युवा वर्ग को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में वांछित सफलता में परेशानी हो सकती है। निराशा, असफलता और मजबूरी के कारण मानसिक तनाव अवसाद का रूप ले सकते हैं। युवा-आक्रोश जन्य अपराधों यथा लूटमार, राहजनी और अन्य गैरकानूनी गतिविधियाँ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों की सरकारों के लिए चिन्ता का विषय बनेंगी।
शनि और राहु के साथ बृहस्पति का षडाष्टक सम्बन्ध दुनियाभर के बैंको में आर्थिक मंदी और अन्य कारणों से मुद्रा का संकट ला सकता है। नकली ठग, तांत्रिक और ओझा सहित टोटकेबाजों की चांदी रहेगी। टोने-टोटके के भय और उपचार में अनपढ़ तो क्या, पढ़े-लिखे लोग भी सशंकित रहेंगे।
यह वर्ष भारत के लिए चुनौतिपूर्ण रहनेवाला है। देशवासियों के विवेक तथा धैर्य की जबर्दस्त परीक्षा लेने वाला है पराभव। देश और सम्पूर्ण विश्व परीक्षा में सफल हो इसी कामना के साथ...

Wednesday, April 10, 2013

संवत्सर गणना----अद्वितीय काल-विज्ञान


                  
भारतीय मनीषा ने सभी ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर के नाम से अभिहित किया है, अर्थात् किसी ऋतु से आरम्भ कर पुनः उसी ऋतु की आवृति तक का समय एक संवत्सर होता है----सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरो बुधैः(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश)। दूसरे अर्थों में संवत्सर के अन्दर सभी ऋतुओं का निवास होता है—संवसन्ति ऋतवः अस्मिन् संवत्सरः(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश,कालवर्ग,20)। निरुक्त ने तो सभी प्राणियों की आयु की गणना इन्हीं संवत्सरों के द्वारा होने के कारण कहा है कि जिसमें सभी प्राणियों का वास हो, समय के उस विभाग को संवत्सर कहते हैं—संवत्सरः संवसन्ते अस्मिन् भूतानि(निरुक्त,अ.4,पा.4,खं.27)। सारांशतः, जो काल- विभाग सभी ऋतुओं और प्राणियों का आधार है, उसे संवत्सर कहते हैं। स्पष्टतः ऋतुओं के आगमन-परिवर्तन, उनका प्रभाव-काल, प्राणियों की अवस्था, व्यवहार आदि में कालजन्य परिवर्तन आदि की गणना संवत्सर के ज्ञान के बिना नहीं की जा सकती है।
काल-गति के चक्रवत् होने के कारण संवत्सरारम्भ के दिन का निर्णय एक गूढ़ विषय है। ब्रह्मपुराण के अनुसार-चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि। शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति।। अर्थात् ब्रह्माजी ने चैत्रमास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने पर संसार की सृष्टि की। इसी कारण वाचनिक रूप में सृष्टि के आरम्भ की यह तिथि संवत्सर के आरम्भ की तिथि के रूप में प्रचलित हुयी है।
वास्तव में संवत्सर की छः ऋतुएँ उष्णता और शीतता के आधार पर तीन-तीन के दो समूहों में बँटी दिखती हैं— वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा उष्णता प्रधान तथा शरद्, हेमन्त और शिशिर शीत प्रधान हैं। श्रुतियों ने अग्नीषोमात्मकम् जगत् कहकर अग्नि (उष्ण) और सोम (शीत) को सृष्टि का प्रधान कारण माना है। इन दोनों में शीत जहाँ प्रकृति का स्वाभाविक रूप है वहीं उष्णता जीवन का लक्षण है। यानि प्रकृति में उष्णता का संयोग जीवोत्पत्ति का आधारभूत कारण है। मृत प्रकृति को जीवन (उष्णता) प्रदान करने के कारण ही सूर्य मार्तण्ड कहलाता है—मृतेण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः(श्रीमद्भागवत)। जड़वत् प्रकृति में उष्णता का आरम्भ वसन्त से होता है यानि सर्वांगशीतल प्रकृति में वसन्तागमन से प्राप्त उष्णता के द्वारा जीवन स्पन्दित हो उठता है। सम्भवतः इसी कारण वसन्त में ही ब्रहमा द्वारा सृष्टि की रचना का वर्णन आर्षग्रन्थों में वर्णित है।
वसन्त का पहला महीना होने के कारण प्रकृति चैत्र के महीने से जीर्ण-शीर्ण पत्रादिकों को त्यागकर नवीन पत्र-पुष्पों के आभरण से सजने लगती है। जीवन के आधारभूत पेड़-पौधों को सोम (औषधि-गुण) प्रदान करने वाला चन्द्रमा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से अभिवर्धमान होता है। एक ओर यह दिन चन्द्रमा की प्रथम कला के आरम्भ का दिन है तो दूसरी ओर राशि चक्र की प्रथम राशि मेष पर संक्रमण को उत्सुक जड़ प्रकृति में चेतना-प्रवाह का कारक सूर्य चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के समय उच्चाभिलाषी रहता है। इसी कारण भारतीय मनीषा ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को संवत्सरारम्भ माना है।
रात्रि का अंधकार जड़ता का प्रतीक होता है। सुषुप्ति आशा का संचार नहीं करती है। अतः नया वर्ष सूरज की पहली किरण का स्वागत करके मनाया जाता है, आधी रात में नहीं जीर्ण हो चुके पत्तों का गिरना और नयी कोंपलों का फूटना युगपत् हैं, पतझड़ और बहार समकालिक हैं। पुरान के अवसान और नवीनता के आगमन का संदेश सुनाता नव संवत्सर अपने गहरे अर्थों में जीवन का दर्शन समझाता आता है।
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
आज संवत्सरारम्भ के उषःकाल में जगन्नियन्ता से इसी प्रार्थना के साथ नव संवत्सर का स्वागत है...