Monday, September 12, 2011

पूर्वजों का आभार व्यक्त करने का महापर्व:पितृपक्ष
पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पावन अवसर है। श्रद्धा से किए गए भारतीय मनीषा के अनुसार इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात् प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं— (1) देव ऋण (2) ऋषि ऋण (3) पितृ ऋण। पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के स्मरण और उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन हमें उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त कर देता है। यह कृतज्ञता कई कारणों से महत्वपूर्ण होती है हमें जन्म देने, तमाम संकटों से हमारी रक्षा करने, स्वयं रातों को जाग-जागकर हमें चैन की नींद सुलाने, अपनी विपन्नता की छाया मात्र भी हमपर न पड़ने देने, हमें उत्तम संस्कारों से युक्त करने— हरपल ऐसे ही न जाने कितनी अकारण करुणावृष्टि करने वाले स्नेह और ममत्व से पगे पितृदेव हमारे प्रेम, स्नेह, सत्कार, समर्पण, आदर और सम्मान से ही प्रसन्न हो उठते हैं।
पूजा-पाठ, तर्पण, पिंडदान आदि से पूर्वज प्रसन्न होते हैं और इससे परिवार में सुख-शांति, यश-वैभव और सुसंतति की वृद्धि होती है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार---- मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इन्कार कर दिया। कर्ण ने कहा, मैंने तो अपनी अर्जित सारी संपदा सदैव दान-पुण्य में ही अर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है?” चित्रगुप्त ने जवाब दिया, राजन्, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके ऊपर अभी पितृ ऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को व्यवस्था दी,आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का सविधि श्राद्ध, तर्पण तथा पिंडदान करके आइए। तभी आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी
मत्स्यपुराण के अनुसार त्रिविधं श्राद्धमुच्यते अर्थात् तीन प्रकार के श्राद्ध कहे गए हैं— (1) नित्य श्राद्ध (2) नैमित्तिक श्राद्ध एवं (3) काम्य श्राद्ध। किन्तु यमस्मृति में नित्य, नैमित्तिक और काम्य के अतिरिक्त वृद्धि तथा पार्वण सहित कुल पाँच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है—
नित्य श्राद्ध:- प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेवा को स्थापित नहीं किया जाता। केवल जलांजलि से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक श्राद्ध:- किसी को निमित्त बनाकर किया जाने वाला श्राद्ध नैमित्तिक श्राद्ध कहलाता है। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को उद्देश्य कर किया जाने वाला श्राद्ध-- जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशगात्र, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी विश्वेदेवों को स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य श्राद्ध- किसी विशेष कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है, वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि श्राद्ध:- किसी प्रकार की वृद्धि जैसे पुत्र-जन्म, वास्तु-प्रवेश, विवाहादि मांगलिक अवसरों पर पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्धकर्म किये जाते हैं उन्हें वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। यह नान्दी श्राद्ध या नान्दीमुख श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
पार्वण श्राद्ध:- पार्वण श्राद्ध पर्वों से सम्बन्धित होते हैं। पर्वों जैसे अमावस्याओं, मन्वादि तिथियों संक्रान्तियों और पितृपक्ष आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेव सहित होता है।
विश्वामित्रस्मृति तथा भविष्यपुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं | जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ तथा पुष्ट्यर्थ के नामों से जाना जाता है।
सपिण्डन श्राद्ध:- सपिण्डन शब्द का अभिप्राय है पिण्डों को मिलाना। इसमें प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मिलन कराया जाता है।
गोष्ठी श्राद्ध:- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं, उन्हें गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्ध्यर्थ श्राद्ध:- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं,उन्हें शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन, सगोत्र बान्धवों के साथ भोजन आदि।
कर्मांग श्राद्ध:- कर्मांग का शाब्दिक अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं, उन्हें कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।
यात्रार्थ श्राद्ध:- यात्रा में निर्विघ्नता और कुशलता के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है। जैसे तीर्थाटन या देशाटन के उद्देश्य से प्रस्थान के पहले किया जाने वाला  श्राद्ध।
पुष्ट्यर्थ श्राद्ध:- पुष्टि अर्थात् शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं, वे पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहलाते हैं।
धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की 12 अमावास्याएँ, 4 पूण्यादि तिथियाँ, 14 मन्वादि तिथियाँ, 12 संक्रान्तियाँ, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग 15 पितृपक्ष का काल, 5 अष्टकाश्राद्ध, 5 अन्वष्टका तथा 5 पूर्वेद्यु। इन अवसरों पर शास्त्र निर्देशित विभिन्न पितृ-कर्म या श्राद्ध का विधान है, जिन्हें अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु अवश्य करना चाहिए। पितरों के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है। पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है, उससे वह पितृ-प्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या परिवार का कोई सदस्य उसके नाम से जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेतस्‌ का अंश लेकर वह चंद्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर उठने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार माता-पिता आदि पितरों के निमित्त उनके नाम और गोत्र के उच्चारण के साथ  मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको उनके कर्मों के अनुसार प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष योनि में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है। श्राद्धकाल उपस्थित होने पर पितृगण मनोमय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित रहते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में अपना भाग ग्रहण करते हैं।
अतः आरोग्य, धन-सम्पदा, सन्तति, आयुष्य आदि की कामना-पूर्ति के लिए पितरों को तिल मिश्रित जलाञ्जलि अवश्य प्रदान करें।पितृपक्ष में तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ एक-एक पितर को प्रदान करने से उस समय तक के सारे पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं।
(एकैकस्य तिलैरमिश्रांस्त्रीन् दद्याज्जलाञ्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।।)
पितृपक्ष में भाद्रपद पूर्णिमा से प्रारम्भ कर पिता की तिथि तक तर्पण करें। सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।  घर आंगन में रंगोली बनाएं ।
तर्पण के लिए अर्घ्य-पात्र चाँदी, ताम्बे अथवा कांस्य का होना चाहिए। इन सोलह दिनों तक सब प्रकार से संयमित दिनचर्या होनी चाहिए।
तर्पण विधि:--
भाद्रपद की पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि से निवृत होकर भगवान् श्री गणेश और माता पार्वती का ध्यान करें। गायत्री मन्त्र से शिखा बाँधकर तिलक लगाकर दाहिनी अनामिका के मध्य पोर में दो कुशों और बायीं अनामिका में तीन कुशों की पवित्री धारण कर लें। हाथ में तीन कुश, यव, अक्षत, और जल लेकर तर्पण का संकल्प करें।
अद्य अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक (नाम) अहं श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थम् देवर्षि मनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये।
संकल्प के बाद क्रमशः देव, ऋषि और पितरों को तर्पण प्रदान करें। पितृतर्पण का सर्वोत्तम समय अपराह्न (दोपहर के बाद का) काल है।
देव-तर्पण:--
पूर्व दिशा की ओर मुँह कर, दाहिना घुटना जमीन पर टेककर, एक-एक अञ्जली जल और चावल ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि देवों को तृप्यताम् कहकर अर्पित करें।
ऋषि-तर्पण:--
उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, दाहिना घुटना जमीन पर टेककर, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा आदि ऋषियों को यव मिश्रित जल की एक-एक अञ्जली जल प्रदान करें। इस समय जनेऊ कण्ठ में लपेट लें।
पितृ-तर्पण:--
अब दक्षिण दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ दाहिने कन्धे पर रख कर (अपसव्य) होकर, बायाँ घुटना जमीन पर लगाकर बैठें। तिल मिश्रित जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ यम को चौदह बार यमाय नमः तस्मै स्वधाकहकर प्रदान करें। उसके बाद पितरों का आवाहन करें।
(ऊँ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलाञ्जलिम्)
आवाहन के पश्चात् अमुक गोत्रः अस्मत् पिता अमुक(नाम) तृप्यताम् इदं तिलोदकम् तस्मै स्वधा तस्मै स्वधा तस्मै स्वधा नमः बोलते हुए पिता, पितामह, प्रपितामह.., माता, पितामही....., मातामह (नाना)...,मातामही..., ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों को तीन-तीन अञ्जली तिल-जल प्रदान करें। अन्त में भीष्मपितामह को तीन अञ्जली दें। अन्त में पूर्वाभिमुख होकर, जनेऊ सव्य करके सूर्यदेव को प्रणाम कर यह पितृ-यज्ञ श्री भगवान् को अर्पित करें।
इस प्रकार पिता की तिथि तक महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं। तिथि के दिन श्रेष्ठ ब्राह्मण या जमाई, भाञ्जा आदि को न्यौता देकर बुलाएं। पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध,  दही,  घी एवं खीर अर्पित करें। तर्पण-पूजन-अर्पण के पश्चात् पितरों को श्रद्धापूर्वक विसर्जित करें। गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें। ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।
आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहते हैं । जिन पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद न हो उनका श्राद्ध इस दिन कर पितरों को तर्पण किया जाता है और दान-पुण्य कर विसर्जित किया जाता है। मान्यता है कि इन दिनों पितरों को संतुष्ट करने वाले स्त्री-पुरुष सभी प्रकार के सुख एवं सद्गति प्राप्त करते हैं।    
 
     

No comments:

Post a Comment