भारतीय मनीषा ने सभी ऋतुओं
के एक पूरे चक्र को संवत्सर के नाम से अभिहित किया है, अर्थात् किसी ऋतु से आरम्भ
कर पुनः उसी ऋतु की आवृति तक का समय एक संवत्सर होता है----‘सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु
स्मृतः संवत्सरो बुधैः’(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश)। दूसरे अर्थों में संवत्सर के अन्दर सभी ऋतुओं का
निवास होता है—‘संवसन्ति ऋतवः
अस्मिन् संवत्सरः’(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश,कालवर्ग,20)। निरुक्त ने तो सभी प्राणियों की आयु की
गणना इन्हीं संवत्सरों के द्वारा होने के कारण कहा है कि जिसमें सभी प्राणियों का
वास हो, समय के उस विभाग को संवत्सर कहते हैं—‘संवत्सरः संवसन्ते अस्मिन् भूतानि’(निरुक्त,अ.4,पा.4,खं.27)।
सारांशतः, जो काल- विभाग सभी ऋतुओं और प्राणियों का आधार है, उसे संवत्सर कहते
हैं। स्पष्टतः ऋतुओं के आगमन-परिवर्तन, उनका प्रभाव-काल, प्राणियों की अवस्था,
व्यवहार आदि में कालजन्य परिवर्तन आदि की गणना संवत्सर के ज्ञान के बिना नहीं की
जा सकती है।
काल-गति के चक्रवत् होने के
कारण संवत्सरारम्भ के दिन का निर्णय एक गूढ़ विषय है। ब्रह्मपुराण के अनुसार-‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा
ससर्ज प्रथमे अहनि। शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति।।’ अर्थात् ब्रह्माजी ने
चैत्रमास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने पर संसार की सृष्टि की। इसी
कारण वाचनिक रूप में सृष्टि के आरम्भ की यह तिथि संवत्सर के आरम्भ की तिथि के रूप
में प्रचलित हुयी है।
वास्तव में संवत्सर की छः
ऋतुएँ उष्णता और शीतता के आधार पर तीन-तीन के दो समूहों में बँटी दिखती हैं—
वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा उष्णता प्रधान तथा शरद्, हेमन्त और शिशिर शीत प्रधान हैं।
श्रुतियों ने ‘अग्नीषोमात्मकम्
जगत्’ कहकर अग्नि (उष्ण)
और सोम (शीत) को सृष्टि का प्रधान कारण माना है। इन दोनों में शीत जहाँ प्रकृति का
स्वाभाविक रूप है वहीं उष्णता जीवन का लक्षण है। यानि प्रकृति में उष्णता का संयोग
जीवोत्पत्ति का आधारभूत कारण है। मृत प्रकृति को जीवन (उष्णता) प्रदान करने के
कारण ही सूर्य मार्तण्ड कहलाता है—‘मृतेण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो मार्तण्ड इति
व्यपदेशः’(श्रीमद्भागवत)।
जड़वत् प्रकृति में उष्णता का आरम्भ वसन्त से होता है यानि सर्वांगशीतल प्रकृति
में वसन्तागमन से प्राप्त उष्णता के द्वारा जीवन स्पन्दित हो उठता है। सम्भवतः इसी
कारण वसन्त में ही ब्रहमा द्वारा सृष्टि की रचना का वर्णन आर्षग्रन्थों में वर्णित
है।
वसन्त का पहला महीना होने
के कारण प्रकृति चैत्र के महीने से जीर्ण-शीर्ण पत्रादिकों को त्यागकर नवीन
पत्र-पुष्पों के आभरण से सजने लगती है। जीवन के आधारभूत पेड़-पौधों को सोम (औषधि-गुण)
प्रदान करने वाला चन्द्रमा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से अभिवर्धमान होता है। एक ओर यह
दिन चन्द्रमा की प्रथम कला के आरम्भ का दिन है तो दूसरी ओर राशि चक्र की प्रथम
राशि मेष पर संक्रमण को उत्सुक जड़ प्रकृति में चेतना-प्रवाह का कारक सूर्य चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा के समय उच्चाभिलाषी रहता है। इसी कारण भारतीय मनीषा ने चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा को संवत्सरारम्भ माना है।
रात्रि का अंधकार जड़ता
का प्रतीक होता है। सुषुप्ति आशा का संचार नहीं करती है। अतः नया वर्ष सूरज की पहली
किरण का स्वागत करके मनाया जाता है, आधी रात में नहीं। जीर्ण हो चुके पत्तों का गिरना और नयी कोंपलों का फूटना युगपत् हैं, पतझड़ और बहार समकालिक हैं। पुरातन के अवसान और नवीनता के आगमन का संदेश सुनाता नव संवत्सर अपने गहरे अर्थों में जीवन का दर्शन समझाता आता है।
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
आज संवत्सरारम्भ के उषःकाल में जगन्नियन्ता से
इसी प्रार्थना के साथ नव संवत्सर का स्वागत है...
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