जब-जब पृथ्वी पर सत्तामद में चूर अहंकारी अधर्मी असुरों की
वृद्धि होती है, जब-जब अपने को
अजर-अमर समझकर सत्तासीन क्रूरता नीति का सर्वथा त्याग कर देती है, जब-जब धर्म की हानि होती है और समूची धरती इनके अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर उठती है, तब-तब पृथ्वी पर सज्जनों की पीड़ा हरने के लिए विविध मनुज-शरीरों में कृपानिधि भगवान ने अवतार लिया है—
अजर-अमर समझकर सत्तासीन क्रूरता नीति का सर्वथा त्याग कर देती है, जब-जब धर्म की हानि होती है और समूची धरती इनके अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर उठती है, तब-तब पृथ्वी पर सज्जनों की पीड़ा हरने के लिए विविध मनुज-शरीरों में कृपानिधि भगवान ने अवतार लिया है—
जब जब होहिं धरम के हानी। बाढैं असुर अधम अभिमानी।।
करहीं अनीति जाई नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
इसी शृंखला में श्वेतवाराह कल्प
में वैवश्वत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें द्वापर युग में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की
मध्यरात्रि में पृथ्वी का संकट हरने के लिए मथुरा में माता देवकी के गर्भ से भगवान
कृष्ण ने अवतार लिया--एक ऐसा अवतार जिसने विश्व को अपने कर्तव्य
के प्रति सचेत होने, युगानुकूल धर्माचरण में प्रवृत्त करने तथा वंश-परिवारवाद से
ऊपर उठकर समष्टिहित में अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होने का गीतारुपी विगुल
फूँका तथा जिनके स्मरण मात्र से
दैहिक-दैविक-भौतिक त्रिविध संताप नष्ट हो जाते हैं।
मनीषा ने साधना के लिए चार रात्रियों का विशेष माहात्म्य बताया है- कालरात्रि (दीपावली), महारात्रि (दुर्गाष्टमी), मोहरात्रि (श्रीकृष्णजन्माष्टमी) और शिवरात्रि। जन्माष्टमी का व्रत ‘व्रतराज’ कहा गया है। जिनके जन्म के संयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श कर धन्य-धन्य हो गईं- उन भगवान श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण सृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है। इसी कारण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते, नाम-कीर्तन करते अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है, प्राणियों के सब क्लेश दूर हो जाते हैं,
दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है और इस लोक में सुख भोग कर मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छूटकर परमलोक को प्राप्त करता है।
दैहिक-दैविक-भौतिक त्रिविध संताप नष्ट हो जाते हैं।
मनीषा ने साधना के लिए चार रात्रियों का विशेष माहात्म्य बताया है- कालरात्रि (दीपावली), महारात्रि (दुर्गाष्टमी), मोहरात्रि (श्रीकृष्णजन्माष्टमी) और शिवरात्रि। जन्माष्टमी का व्रत ‘व्रतराज’ कहा गया है। जिनके जन्म के संयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श कर धन्य-धन्य हो गईं- उन भगवान श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण सृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है। इसी कारण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते, नाम-कीर्तन करते अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है, प्राणियों के सब क्लेश दूर हो जाते हैं,
दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है और इस लोक में सुख भोग कर मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छूटकर परमलोक को प्राप्त करता है।
इस वर्ष
श्रीकृष्णाष्टमी का व्रत 5
सितम्बर (शनिवार) को है। श्रीकृष्णाष्टमी के छः तत्व हैं--
1) भाद्रपद कृष्णपक्ष, 2), वृषगत चन्द्र 3) अर्द्धरात्रि, 4) अष्टमीतिथि, 5) रोहिणी नक्षत्र और 6) सोमवार दिन
1) भाद्रपद कृष्णपक्ष, 2), वृषगत चन्द्र 3) अर्द्धरात्रि, 4) अष्टमीतिथि, 5) रोहिणी नक्षत्र और 6) सोमवार दिन
अनेक वर्षों के बाद इस वर्ष
अर्द्धरात्रि में मास-पक्ष-तिथि-राशि-नक्षत्र का दुर्लभ संयोग ‘जयन्ती’ नामक
श्रीकृष्णजन्माष्टमी को महापुण्यप्रदायक बना रहा है।
रोहिण्यां अर्धरात्रे च यदा
कृष्णाष्टमी भवेत्। तस्यां अभ्यर्चनं शौरेः हन्ति पापं त्रिजन्मजं।।
श्रीकृष्णजन्मोत्सव
का पावन समय रात्रि 5 सितम्बर (शनिवार)11.36 पर है। कृष्णव्रत का पारण 6 सितम्बर (रविवार) को
सूर्योदय के पश्चात् प्रथम प्रहर में 7.35 के बाद अपेक्षित है।
पुराणों के अनुसार जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह
व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर
प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं
तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराज के अनुष्ठान
से सभी को प्रेय और श्रेय दोनों की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला
भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है।
कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं, दुख-दरिद्रता का नाश
होता है। जीवनसाथी, संतान, आरोग्य, आजीविका आदि
सहज सुलभ हो जाते हैं।
व्रत-विधि----
इस व्रत को करने वाले व्रत के एक दिन पूर्व हल्का-सात्विक
भोजन करें तथा पूजन-स्थान की सफाई कर लें। उपवास वाले दिन सूर्योदय से पहले उठकर,
स्नान आदि नित्यक्रिया से निवृत होकर पूजन-स्थान पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर
मुँह करके बैठें। घी का दीपक या धूपबत्ती या दोनों जलाकर गणेश-अम्बिका,
पार्वती-शंकर, इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, स्थानदेवता और लोकपालों का ध्यान
कर हथेली पर जल, अक्षत, सुपारी, फूल और द्रव्य रखकर मन में अपनी कामना-पूर्ति की
इच्छा के साथ उपवास सहित व्रत का संकल्प करें-
संकल्प---
मम अखिल पाप प्रशमनपूर्वकं सर्वाभीष्ट
सिद्धये श्रीकृष्णाष्टमी व्रतोपवासं अहं करिष्ये।
संकल्पित होकर संयमपूर्वक मन,
वाणी और शरीर से पवित्र रहकर व्रत का पालन करें। उपवास के दिन झूठ बोलने, जुआ
खेलने, सज्जनों-स्त्रियों का अपमान करने तथा अपशब्द बोलने से बचें। व्रत के दिन
बार-बार जल पीने से, एक ही बार पान-तम्बाकु के उपभोग से, दिन में सोने से तथा मैथुन
से व्रत भंग हो जाता है।
‘असकृज्जलपानाच्च
सकृत्ताम्बूलचर्वणात्।
उपवासः
प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात्।।’
ध्यान रहे कि विवशता में उपवास
का कोई मतलब नहीं है। यदि पूर्ण निराहार नहीं कर सकें तो फलाहार, दुग्धपान कर सकते
हैं किन्तु फलाहार के नाम पर चाट-पकौड़े, पकौड़ी, आलू की टिक्की आदि का सेवन
बिल्कुल ही ना करें। इन्द्रियों पर संयम ना हो तो व्रत कदापि न करें। माता देवकी
सहित वासुदेव श्रीकृष्ण का ध्यान करते, नाम-कीर्तन करते अथवा मंत्र जपते हुए
रात्रि जागरण करें। यदि पूरी रात नहीं जग सकें तो भगवान् के जन्मकाल के समय
पूजन-आरती तक अवश्य जगें।
श्रीकृष्णजन्माष्टमी
पूजन विधि—
सूर्यास्त के बाद स्नानादि से
निवृत होकर पूजा-स्थान पर सपरिवार बैठकर भगवान का गर्भवास स्थिर लग्न में शाम 8:15 के पहले कर
लें। इसके लिये काँसे के कटोरे में दूध डालकर उसमें लड्डूगोपाल की प्रतिमा अथवा
शालिग्राम रखें तथा ढक दें। अखण्ड दीप जलाकर पूजन-थाली सजा लें—
सामग्री—
कलश, काँसे की थाली, गंगाजल,
अक्षत, सुपारी, पान के पत्ते, चन्दन, रोली, सिन्दूर, धूप, दीपक, कपूर, रूई की
बत्ती, माचिस, मौली, एक साफ रुमाल, भगवान के कपड़े, मुकुट, मोरपंख, बाँसुरी,
पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और शक्कर), फल (ऋतुफल तथा खीरा) फूल, तुलसीदल, कुशा,
आम के पत्ते तथा नजर उतारने के लिये अजवाइन और मिट्टी का कसोरा रख लें।
सविधि कलश
स्थापित कर लें।
अब प्रसाद तैयार करें—
प्रसूता को
दी जानेवाली हल्दी तथा अछवाइन (सूखे मेवों का पाक), भूनी धनिया और शक्कर का चूर्ण,
साबूदाने की खीर, सिंघाड़े का हलवा, माखन,
इसके बाद अपनी श्रद्धा से पुरुष
सूक्त, श्री गजेन्द्र-मोक्ष (विपत्तिनाश के लिये), श्री विष्णु-सहस्रनाम आदि से
भगवान् की स्तुति करें और सामर्थ्य भर जप-कीर्तन करें।
“कृष्णाय वासुदेवाय हरये
परमात्मने।
प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।”
प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।”
“श्री कृष्ण
गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव”
जन्मकाल के ठीक पहले
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः गौरी देव्यै नमः, श्रीलक्ष्मीनारायणाभ्याम् नमः,
उमामहेश्वराभ्याम् नमः, वाणीहिरण्यगर्भाभ्याम् नमः, शचीपुरन्दराभ्याम् नमः,
देवक्यै नमः, वसुदेवाय नमः, नन्दराजाय नमः, यशोदायै नमः, बलभद्राय नमः, सुभद्रायै
नमः का पाठ-उच्चारण करें तथा हाथ में फूल-अक्षत लेकर माता देवकी की पूजा करें—
‘प्रणमे
देव-जननी त्वया जातस्तुवामनः’
“गायद्भिः
किन्नराद्यैः सतत परिवृता वेणुवीणानिनादैः
भृङ्गारादर्शकुम्भप्रवरयुतकरैः
सेव्यमाना मुनीन्द्रैः
पर्यङ्के
राजमाना प्रमुदितवदना पुत्रिणी सम्यगास्ते
सा
देवी-देवमाता जयति सुरमुखा देवकी कान्तरूपा”
जन्म-समय पर श्री रामचरितमानस
के राम-जन्म के छन्द काँसे की थाली और ताली की थाप तथा जयघोष के साथ पढ़ें—
‘भये प्रगट
कृपाला, दीन दयाला, कौसल्या हितकारी.....’
भगवान् को दूध से निकालकर
स्नान, पंचामृत स्नान, स्वच्छ जल से पुनः स्नान करायें तथा रुमाल से पोंछकर
वस्त्रादि से सज्जित करें। मिट्टी के कसोरे में कपूर जलाकर अजवायन से भगवान् की
नजर उतारें। अब उनका सविधि उपचारों से पूजन करें और भोग अर्पित करें। अन्त में
आरती उतारें, प्रार्थना करें और पुष्पाञ्जली दें।
व्रत के अगले दिन सूर्योदय के
बाद माता के साथ बालकृष्ण की पूजा-अर्चना करें। सत्पात्रों को यथाशक्ति दान देकर
पारण करें।
सम्पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से किया
गया यह व्रत सभी अभीष्ट देनेवाला हो- इसी के साथ सबको श्रीकृष्णाष्टमी की हार्दिक
शुभकामनाएँ।